Tuesday, December 8, 2009

दूर देश में अपने देश की धुन

कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी
सदियों रहा है दुश्मन दौरे-जमां हमारा

अल्लामा इकबाल की इस बात में दम है, यह बात भारत का इतिहास साबित करता रहा है। एकदौर था जब भारत को सोने की चिडिया कहा जाता था। आज भारत में वैसी भौतिक संपन्नता भले न हो, फिर भी इस बात में आज भी कोई दो राय नहीं है-
सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा..
यह बात सौ फीसदी सच है और सिर्फ इसलिए नहीं कि हम हिंदुस्तानी हैं। दुनिया के पैमाने पर अगर देखें तो प्रकृति ने इतनी खूबियां दूसरे किसी देश को नहीं बख्शीं हैं, जितनी हिंदुस्तान को दी हैं। अकेली भारतभूमि ही है जहां सभी छह ऋतुएं आती-जाती हैं। पर्वत, सागर, मैदान, रेगिस्तान .. प्रकृति अपने हर रूप में अगर किसी एक देश की सीमा में मौजूद है तो वह सिर्फ भारत ही है। चाहे थोडी सी ही मात्रा में सही, पर लगभग सभी खनिज यहां पाए जाते हैं। सभी धार्मिक मतों को मानने वाले और सभी दर्शनों के मूलसूत्र यहां मौजूद हैं। जाहिर है, सर्वथा संपन्न प्रकृति ने ही हमारी सभ्यता और संस्कृति को भी हर तरह से संपन्न बनने के लिए प्रेरित किया है और हमारी परंपरा ने प्रकृति की उस प्रेरणा को स्वीकार कर साकार भी किया है।
संस्कृति के तंतु सूक्ष्म
सहस्राब्दियों पुरानी भारतीय संस्कृति और सभ्यता शुरू से ही सबके लिए आकर्षण का केंद्र रही है। इस आकर्षण की कई वजहें रही हैं। सबसे बडी वजह तो यह है कि काल का यह लंबा सफर भारतीय संस्कृति के लिए सिर्फ बाहर का सफर नहीं रहा है। हमारे लिए जीवन की यात्रा जितनी बाहर रही है, उतनी ही भीतर भी रही है। यही वजह है कि हम बडी मशीनों और जटिल तकनीक का आविष्कार भले न कर सके, पर जीवन को बेहतर और गुणवत्तापूर्ण बनाने के उपाय हमने बहुतेरे खोजे। योग से नियंत्रित और प्रकृति के साहचर्य की जो जीवनशैली भारत ने विकसित की है, उसे आज पूरी दुनिया अपनाना चाहती है। संगीत और नृत्य भी हमारे लिए सिर्फ मौज-मस्ती की चीज नहीं, आध्यात्मिक साधना और लोक कल्याण के उपाय रहे हैं। प्रहर और ऋतुओं के साथ रागों तथा ईश्वर की लीलाओं के साथ नृत्य विधाओं का जैसा सायुज्य भारतीय संस्कृति में रहा है, वह और कहीं नहीं मिलता। साहित्य, संगीत और नृत्य हमारे लिए सिर्फ भावनाओं की अभिव्यक्ति या मनोरंजन के साधन नहीं, बल्कि जीवन को सही दिशा देने के उपाय भी रहे हैं। सहस्राब्दियों पहले रचा गया ऐसा साहित्य अन्य किसी भी देश में नहीं पाया जाता जिसकी प्रासंगिकता आज तक बनी रह गई हो। यह कोई गर्वोक्ति नहीं, एक सत्य है कि भारत आज की हाइटेक जिदंगी की समस्याओं का समाधान भी अपने प्राचीन साहित्य में तलाशता है और अपनी इस कोशिश में वह हताश नहीं होता है।
वेद से विज्ञान तक
पश्चिमी मानसिकता के इतिहासकार चाहे कितनी भी कोशिश क्यों न कर लें, लेकिन इस बात से इनकार कर पाना किसी के लिए संभव ही नहीं है कि वेद ही दुनिया के सबसे प्राचीन ग्रंथ हैं। संगीत से लेकर चिकित्सा विज्ञान और निर्माण कला तक जीवन में वेदों की उपयोगिता अब दुनिया भर में साबित हो चुकी है। बेशक भौतिक रूप से अंतरिक्ष की यात्रा हम अमेरिका और रूस के बाद कर सके हैं, लेकिन अंतरिक्ष के रहस्यों की खोज के मामले में हमारी परंपरा इनसे बहुत आगे है। अपने सौर मंडल के बारे में नक्षत्र विज्ञान अब जो खोजें कर रहा है, भारतीय ज्योतिर्वेत्ता उनसे बहुत आगे का विश्लेषण कर चुके हैं। एक अरसा पहले तक पश्चिम और खास कर वैज्ञानिक दृष्टिसंपन्न लोगों के लिए मजाक का विषय रहा ज्योतिष, अब केवल भारत नहीं, दुनिया भर में शोध का विषय बन चुका है।
तमाम शोधों के बावजूद अभी वे इस निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सके हैं कि सौर मंडल में ग्रहों के राशि परिवर्तन का व्यक्ति पर क्या असर पडता है। जबकि भारत के ज्योतिषी सामान्य गणनाओं के आधार पर प्राय: सटीक भविष्यवाणी करते रहे हैं और एक हद तक ग्रहों के अशुभ प्रभावों से बचने के उपाय भी सुझाते रहे हैं। आम भारतीय आज भी जटिल रोगों के उपचार के लिए केवल दवा पर आश्रित नहीं रहता। वह दुआ की मदद भी लेता ही है। ऐसा वह जीवन की दूसरी समस्याओं के समाधान के क्रम में भी करता है। यह अलग बात है कि इस क्रम में वह कई बार ठगी का शिकार भी होता है, लेकिन ठग दुनिया की किस विधा में नहीं हैं? और दो-चार ठगों के कारण किसी विधा को ही गलत मान लेना कैसे संभव है?
सहअस्तित्व का संकल्प
यह भी एक आश्चर्यजनक तथ्य है कि जिस दौर में हमारा समाज तमाम तरह की रूढियों में उलझा था, उसी समय यहां चार्वाक हुए। सिर्फ प्रत्यक्ष को प्रमाण मानने और ईश्वर के अस्तित्व से इनकार करने वाले चार्वाक को भी भारतीय दर्शन की छह धाराओं में सम्मानजनक स्थान मिला। कपिलमुनि के सांख्य के साथ बुद्ध का सम्यक और जैन दर्शन का स्यादवाद हमारी परंपरा के अंग बने। वैचारिक सहअस्तित्व का इससे सुंदर उदाहरण मिलना दुनिया भर में मुश्किल है। विचार के प्रति सम्मान ही वह कारण है जिसने भारतीय संस्कृति को इतना उदात्त और चैतन्य बनाया।
सिर्फ विरोध के लिए विरोध तो किसी का भी किया जा सकता है, लेकिन गणित और विज्ञान की दुनिया को भारत की जो देन है, उसे कभी भुलाया नहीं जा सकता। दुनिया की सबसे प्राचीन भाषा संस्कृत है, यह निर्विवाद है। यह सर्वाधिक वैज्ञानिक भी है, इसे यूरोप ने साबित किया है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि हमारी संस्कृति पर विदेशी आक्रांताओं के हमले भी कम नहीं हुए, लेकिन इसके समानांतर यह तमाम सुरुचिसंपन्न विदेशियों के लिए आकर्षण का केंद्र भी बनी रही। हैरत की बात है कि भारत में ही सांची के स्तूप और कोणार्क के सूर्य मंदिर जैसी पुरातात्विक धरोहरों की खोज भी यूरोपीय मूल के लोगों ने ही की। भोजपुरी और अवधी जैसी जनभाषाओं की ताकत समझने और इन पर व्यवस्थित अनुसंधान करने वाले ग्रियर्सन भी यूरोप से ही आए थे। फादर कामिल बुल्के, डॉ.बारन्निकोफ, ओदोलेन स्मेकल जैसे लोग यह साबित करने के लिए काफी हैं कि इस संस्कृति की महक कितनी दूर-दूर तक जाती है। अभी भी स्पैनिश मूल के ऑस्कर पुजोल समेत कई लोग इस संस्कृति से अपने लगाव का परिचय दे रहे हैं। आइए देखते हैं कुछ ऐसे लोगों की नजर में भारत जिन्होंने भारत के बाहर की दुनिया देखी है।
आध्यात्मिक खोज पूरी हुई
राधानाथ स्वामी, संन्यासी
अमेरिका के एक यहूदी परिवार में जन्मा था मैं। नाम था- रिचर्ड स्लाविन। बचपन से ही आध्यात्मिक प्रवृत्ति का था। 19 वर्ष की आयु में ज्ञान एवं सत्य की खोज करने घर से निकल गया। दुनिया भर की यात्राएं की। यूरोप, मध्य-पूर्व से होता हुआ मैं हिमालय तक पहुंचा। भारत में आकर लगा कि मेरी आध्यात्मिक खोज पूरी हो गई है। मैं यहां इस्कॉन मंदिर से जुडा और मेरा नाम राधानाथ स्वामी हो गया।
शांति, संस्कृति, सभ्यता और सहनशीलता का अद्भुत गुण मैंने भारत में हीसीखा। 1971 में मुंबई इस्कॉन मंदिर के एक कार्यक्रम के दौरान ए.सी. भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद से मिला था, जिनसे बहुत प्रभावित हुआ। भारत के अनुभव बांटने वापस अमेरिका गया। पश्चिम वर्जीनिया में न्यू वृंदाबन इस्कॉन फार्म कम्युनिटी में पुजारी के रूप में सेवा की। आठ वर्ष बाद मुझे वहां स्कूलों-कॉलेजों में प्रचार का काम सौंपा गया। फिर भारत लौटा। मां आनंदमयी, स्वामी सच्चिदानंद, दलाई लामा और मदर टेरेसा से मिलकर मेरी लगन और बढ गई।
अपनी खोज-यात्रा पर मैंने पुस्तक दि जर्नी होम लिखी है, जिसमें शिकागो में मेरे जन्म से लेकर राधानाथ स्वामी बनने तक की पूरी यात्रा-कथा का वर्णन है।
वर्ष 1986 में मुंबई में राधा-गोपीनाथ मंदिर, चौपाटी की स्थापना हुई थी। 1994 में यह इस्कॉन से संबद्ध हुआ। यह आध्यात्मिक शिक्षण का केंद्र है, जहां भगवद् गीता व भगवद् पुराण का अध्ययन किया जाता है। पिछले 20 वर्र्षो से मैं यहां प्रचारक हूं। हमारी एक योजना है मिड डे मील, जिसके जरिये रोज 1 लाख 75 हजार गरीब बच्चों, मिशनरी अस्पतालों, नेत्र जांच कैंपों, स्कूलों के अलावा आपातकालीन सुविधा कार्यक्रमों में भागीदारी निभाई जाती है। मेरा मानना है कि जीवन ईश्वर का वरदान है। थोडी सी सजगता से आंतरिक शांति के साथ ही ईश्वर की अनुभूति भी की जा सकती है। बस मन में सेवाभाव होना चाहिए।
मेरी रगों में बसता है भारत
अन्ना स्मिरनोवा, नृत्यांगना
ध्यान एवं योग मेरे लिए प्रेरणा के मुख्य स्रोत रहे हैं और नृत्य ने तो मेरी जीवनधारा ही बदल दी। मैंने लगभग दस वर्ष यूक्रेन के न्याय मंत्रालय में विज्ञान अधिकारी के बतौर काम किया। 1996-97 में आईसीसीआर से स्कॉलरशिप मिली तो मैं भारत आई। यहां एक अलग दिशा मिली। भिन्न-भिन्न संस्कृतियों का बेजोड संगम मुझे भारत में ही देखने को मिला। भारत मुझे 16 वर्ष की कन्या की तरह सुंदर लगता है, जिसमें सौंदर्य, उत्साह, विचार, नवीनता सब एक साथ है। जे.कृष्णमूर्ति व आदि शंकराचार्य के दर्शन ने मुझे प्रभावित किया तो कबीर को भी पढती हूं।
यहां गुरु जय लक्ष्मी ईश्वर से मैंने भरतनाट्यम सीखा। श्रीमती वसंत सुंदरम और श्री दुर्गा प्रसाद से कर्नाटक संगीत सीखा। जे.जे.साई बाबू से छऊ नृत्य सीखा।
वापस यूक्रेन लौटने पर वर्ष 2003 में वहां इंडियन थिएटर नक्षत्र की स्थापना की। 2005 में डॉ. अब्दुल कलाम की प्रेरणा से यूक्रेन विश्वविद्यालय में भारतीय नृत्य स्टूडियो खोला गया, जहां मैं शिक्षिका नियुक्त हुई। 2006 में वहां तीन दिवसीय कंसर्ट हुआ, जिसमें पं.हरिप्रसाद चौरसिया के बांसुरी-वादन ने समां बांध दिया। भारतीय संस्कृति का वैश्वीकरण विषय पर हुई गोष्ठी में भारत, फ्रांस, यू.एस., रूस, मलेशिया और यूक्रेन की भागीदारी रही।
अभी मैं भारत-यूक्रेन संस्कृति में समरूपता विषय पर शोध कर रही हूं। हाल में भारतीय मंदिरों के नृत्य पर मेरी पुस्तक आई है। मैं पोलैंड, हंगरी, स्लोवाकिया, बेलारूस में भारतीय संस्कृति के प्रचार में लगी हूं। भारत मेरी रगों में बसता है और यहां बिताए वर्ष मेरे यादगार लमहों में हैं..।
विश्वशांति का सपना देखती हूं
कात्सु बेन, भिक्षुणी
पहली बार सांस्कृतिक आदान-प्रदान कार्यक्रम के तहत तीन वर्ष के लिए मैं भारत आई। काका कालेलकर मेरे शिक्षक थे। जापान में शीजोओका प्रांत के छोटे से शहर खाकेणवा में मेरा जन्म हुआ। तब बारहवीं की परीक्षा दे चुकी थी और डॉक्टर बनने का सपना देखती थी, लेकिन यहां आकर दिशा बदल गई। वापस जाने का समय आया तो दुविधा में पड गई। भारत रास आ गया था। मन में इच्छा थी कि गांधी के विश्वशांति के सपने और बौद्ध शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार करूं। मैं राजपुरा (पंजाब) की एक संस्था में काम करने लगी। हिंदी की रत्‍‌न और प्रभाकर परीक्षा पास की। 1962 तक पढती रही। इस बीच जापान आना-जाना होता रहता था। 1969 में संन्यास ले लिया, ताकि शांति मिशन में लग सकूं। मेरे गुरु फूजिई थे। द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान की हार से बडी अशांति थी। बच्चे अनाथ हो रहे थे, लोग दिशाहीन थे। गुरुजी इससे बहुत आहत हुए, उन्होंने अनाथ बच्चों के साथ रात-दिन मजदूरी करके जापान में एक शांति स्तूप बनवाया। फिर भारत में राजगीर का स्तूप बनवाया। गुरुजी गांधी जी और रवींद्रनाथ टैगोर से प्रभावित थे। गांधी जी की अहिंसक लडाई को उन्होंने करीब से देखा था। 1986 में गुरुजी की मृत्यु के बाद से मैं उनके व गांधी के सपने पूरा करने की कोशिश कर रही हूं। मेरी चाहत है कि जब तक जिंदा रहूं, मेरी हर सांस शांति के लिए हो। विश्व में शांति हो, भविष्य में कभी युद्ध न हो। गांधी का रामराज्य का सपना साकार हो, यही कामना है।
हमारी सबसे बडी थाती है योग
भरत ठाकुर, योग शिक्षक
बहुत कम उम्र में मैंने घर छोड दिया.. नौ साल की उम्र में गुरु श्री सुखदेव ब्रह्मचारी के साथ हिमालय चला गया और चौदह की उम्र तक साधना करता रहा। बाद में फिजियोलॉजी में मास्टर्स किया। फिर काफी रिसर्च के बाद आर्टिस्टिक योगा शुरू करवाया। मेरा मानना है कि हर शरीर का मेटाबॉलिज्म अलग होता है। उसके अनुसार ही योग करना चाहिए।
भारतीय संस्कृति की सबसे बडी थाती ही योग है। योग, आयुर्वेद और वेद इन्हीं में हमारी जडें हैं। आज विदेशों में भारतीय योग का काफी बोलबाला है। मैंने योग और मेडिटेशन के 400 सेंटर्स दुनिया भर में खोले हैं, ताकि सभी लोग इनके फायदे जानें-समझें। मुझे सुकून मिलता है यह देखकर कि अब विदेश के लोग भी भारतीय योग की अहमियत जानने-समझने लगे हैं। योग और ध्यान पर तीन फिल्में भी हमने बनाई हैं। पानी की उपयोगिता पर भी मेरा शोध जारी है। मेरे कई शिष्य देश-विदेश में बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। हाल ही में करीना कपूर का साइज जीरो काफी चर्चा का विषय बना था। इसके पीछे मेरा पॉवर योगा जिम्मेदार था। उन्हें पॉवर योगा की ट्रेनिंग देने वाली मेरी छात्र पायल गिडवानी हैं। मुझे दुख यह है कि कुछ लोग योग को लेकर गलत दावे करते हैं। वे योग से कई असाध्य रोगों के उपचार के दावे करते हैं। जबकि यह प्रिवेंटिव है, क्युरेटिव नहीं।
हमें अपनी संस्कृति के इस खजाने से किसी को गुमराह नहीं करना चाहिए। भारतीय संस्कृति इतनी समृद्ध है कि यह खजाना कभी खत्म नहीं होगा। मुझे खुशी होती है इस बात से कि योग को मानने वालों की तादाद अब देश-विदेश में हर तरफ बढती ही जा रही है।
विदेशियों को आकर्षित करती है आध्यात्मिकता
पं.अभय शंकर, नृत्याचार्य
मैंने अनेक देशों की यात्राएं की हैं और उनके संगीत-नृत्य को निकट से देखा है। मेरा मानना है कि कोई भी संगीत या नृत्य बुरा नहीं होता। बुरा कुछ है तो उसे प्रस्तुत करने का ढंग, जिसके लिए कलाकार दोषी हैं। हर कला में उस देश की संस्कृति प्रतिबिंबित होती है। भारतीय संगीत-नृत्य की गहराई और सच्चाई ने पूरी दुनिया को प्रभावित किया है। नए प्रयोग हर हाल में होने चाहिए, लेकिन शालीनता के साथ। नृत्य और विषय के स्तर पर भी मैंने कई तरह के प्रयोग किए हैं। मैंने खजुराहो में भूषण की कविताओं पर आधारित युद्घांग नामक कार्यक्रम किया था। गोस्वामी तुलसीदास रचित-को नहीं जानत है, जग में कपि संकट मोचन नाम तिहारो को केंद्र में रखकर हनुमान लीला का प्रदर्शन किया है। समलैंगिकता जैसे विषय को पेश किया है, लेकिन पूरी शालीनता के साथ। मैं बुराई को भी अच्छे ढंग से पेश करना चाहता हूं। विद्रूपता और भयावहता को भी सुंदरता के साथ पेश करने का प्रयास करता हूं।
कथक प्रयोगधर्मी खुला नृत्य है, इसलिए इसमें हो रहे प्रयोगों को मैं बुरा नहीं मानता हूं। लेकिन करने को कुछ नहीं है, इसलिए बैठे-बिठाए एक प्रयोग कर लें, इसे मैं उचित नहीं समझता हूं। भारत में प्रतिभाओं की कमी नहीं है। यहां आज भी कई अच्छे कलाकार हैं। वर्ष में कम से कम एक बार मैं भारत अवश्य आता हूं, क्योंकि मुझे भारत से प्यार है। मैं भारत की यात्रा को तीर्थयात्रा मानता हूं।
भारतीय विद्या भवन अपनी तरह की अनूठी और एकमात्र संस्था है। इसलिए जब दस वर्ष पूर्व यहां से गुरु पद को स्वीकारने का निमंत्रण मिला तो मैं इंकार नहीं कर सका। वहां मैं भारतीय-गैर भारतीय छात्र-छात्राओं को मात्र कथक नृत्य की ही शिक्षा नहीं देता, बल्कि भारतीय सभ्यता और संस्कृति भी सिखाता हूं। इसी क्रम में चीन, स्पेन, फ्रांस, इटली, दक्षिण और उत्तरी कोरिया, दक्षिण अफ्रीका, जर्मनी, ऑस्ट्रिया एवं अमेरिका की भी सांगीतिक यात्रा हम कर चुके हैं।
मैंने देश-विदेश में अनेक कार्यक्रम किए हैं। विदेशी नृत्यों के साथ कथक की जुगलबंदी की है। लुई बैंक्स शिवमणि और शंकर महादेवन आदि के साथ फ्यूजन किया है। लेकिन आगरा का वह कार्यक्रम मेरे लिए अविस्मरणीय है जिसमें मुझे अपने गुरु पंडित बिरजू महाराज जी के साथ नृत्य प्रदर्शन का अवसर मिला था।
अभी मेरा पूरा ध्यान सिर्फ कथक नृत्य को समृद्ध करने पर है। विदेशों में अपने विशुद्ध रूप में यह कैसे लोकप्रिय हो? इस पर मेरा ध्यान केंद्रित है। मुझे नहीं लगता कि सफलताओं और उपलब्धियों पर इतराने का समय अभी आया है। इतना जरूर है कि जब कभी प्रशंसा होती है तो लगता है कि मैं सही दिशा में आगे बढ रहा हूं।
भारतीय कलाओं की आध्यात्मिकता विदेशियों को इसकी ओर आकृष्ट करती है। हमारे लिए संगीत नृत्य मनोरंजन का साधन नहीं है। जीवन जीने का माध्यम है। मुक्ति का मार्ग है। नृत्य की बात करें तो मुखाभिनय भारतीय नृत्यों की वह विशेषता है जो किसी विदेशी नृत्य में नहीं मिलती।
हमें पहचान देती है संस्कृति
दीपिका कथरानी, नृत्यांगना
मूल रूप से तो मैं गणित व स्टैटिस्टिक्स की छात्रा रही हूं और अभी भी मैं स्टैटिस्टिक्स के क्षेत्र में ही कार्यरत हूं। मैंने विशेष योग्यता सहित कथक में डिप्लोमा किया है। लगभग 10 वर्ष पूर्व मैं एकसहेली के साथ यूं ही एक संगीत कार्यक्रम में चली गई थी। वहीं गुरु अभय शंकर एवं उनकी कुछ शिष्याओं का कार्यक्रम देखा तो लगा कि मुझे यह नृत्य सीखना चाहिए, ताकि मैं मन के बोझ से मुक्ति पा सकूं। गुरुजी से अनुरोध किया कि वे व्यक्तिगत रूप से मुझे सिखा दें, क्योंकि मैं ऑफिस में काम करती हूं। लेकिन उनका कहना था कि नृत्य सीखना है तो समय निकालना पडेगा। अंतत: मैंने ऑफिस के समय में फेरबदल करके भारतीय विद्या भवन में जाने का समय निकाला। शुरू में मैंने इसे मन बहलाव के साधन के रूप में अपनाया था, लेकिन धीरे-धीरे इसके प्रति मेरी गंभीरता बढती गई। लोगों की सकारात्मक प्रतिक्रियाओं और प्रशंसकों ने भी मुझे जिम्मेदारी का एहसास कराया।
नृत्य के साथ-साथ भारतीय शास्त्रीय गायन में भी मेरी गहरी रुचि है। मैंने यूनाइटेड किंगडम के अनेक शहरों में नृत्य प्रदर्शन किया है। साथ ही गुरु अभय शंकर जी के सहायक के रूप में भी काम किया है। उनकी डांस कंपनी के साथ मैं लंबे समय से जुडी हुई हूं। उनके दल के साथ विभिन्न देशों में मैंने नृत्य प्रदर्शन किया है। भारत में नृत्य करना मेरे लिए किसी सपने के सच होने जैसा है। क्योंकि इसी देश ने सभ्यता का प्रकाश पूरी दुनिया को दिया है।
हम मूल से तो भारतीय ही हैं, लेकिन हमारे पूर्वज काफी पहले इंग्लैंड में बस गए थे। मैं भी वहीं केमाहौल में जन्मी और पली-बढी हूं। लेकिन भारतीय सभ्यता और संस्कृति के साथ-साथ भारतीय परिधान और कलाएं मुझे विशेष पसंद हैं। क्योंकि ये चीजें मुझे भीड में सबसे अलग पहचान दिलाती हैं, विशिष्ट बनाती हैं।
वैसे तो मेरा मानना यह है कि दुनिया का कोई भी संगीत बुरा नहीं है। हर देश के संगीत के साथ उस देश की पहचान जुडी होती है। लेकिन भारतीय संगीत-नृत्य की तो बात ही निराली है। तभी तो यहूदी मेन्युहीन, जुबीन मेहता, जॉर्ज हैरिसन जैसे महान कलाकारों ने इसकी श्रेष्ठता को स्वीकारा, इसे सीखने-समझने का प्रयास किया। दरअसल, भारतीय संगीत की गहराई, इसकी आध्यात्मिकता इसे श्रेष्ठता के सर्वोच्च पायदान पर पहुंचाती है। इसलिए पूरी दुनिया में भारतीय संगीत-नृत्य को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। दिल्ली में कला प्रस्तुति के अवसर को मैं सुनहरा मौका मानती हूं, लेकिन यह किसी अग्नि परीक्षा के समान भी है। कथक के गढ में आकर आचार्यो का आशीर्वाद पाना कोई आसान बात नहीं है।
गरबा है मुझे बेहद पसंद
आरती मानेक, नृत्यांगना
जन्म तो मेरा युगांडा में हुआ, लेकिन भारतीयता के प्रति मेरे मन में शुरू से आकर्षण था। मेरी रुचि शास्त्रीय संगीत और नृत्य में थी, लेकिन शुरुआती दौर में इसे सीखने का सुयोग नहीं मिल सका। दो भिन्न देशों का मामला होने के कारण लंबे समय तक भारत में रहना भी संभव नहीं था। तो मैं लोक नृत्य सीखने लगी। बृज का रास और गुजरात का गरबा मुझे विशेष पसंद है। मैंने इन्हें सीखा और फिर अपने देश लौटकर लोगों को सिखाने लगी।
वह दिन मेरे लिए बेहद रोमांचक और यादगार है जब मेरी टीम ने उत्तरी अमेरिकन और कनेडियन टीम के मुकाबले रास और गरबा करके ओहियो में प्रथम पुरस्कार जीता। जीत का यह सिलसिला चलता रहा।
बाद में मैं कैलिफोर्निया आ गई। यहां श्याम भाई मिठाई वाला के निर्देशन में 135 अव्यावसायिक कलाकारों को लेकर कई नृत्य नाटिकाएं तैयार की, जिनमें प्रमुख थीं नारी तू नारायणी, रामायण और गोपाल कृष्ण कन्हैया आदि। इन दिनों मैं अपने पति सुरू मानेक के साथ लंदन में हूं और गुरू पंडित अभय शंकर से कथक सीख रही हूं। हमारी भारतीय कलाओं में कल्पना और यथार्थ का बहुत ही सुंदर सम्मिश्रण होता है। हम कडवी बात भी सुंदर ढंग से दिखा पाने में सक्षम हैं। अत: पर्यावरण, आतंकवाद, महिला भ्रूण हत्या जैसे विषयों को तो अपनी नृत्य संरचनाओं से प्रकट करते ही हैं, विश्व बंधुत्व का संदेश भी इसके माध्यम से देते हैं।
देशों के बीच की दूरी पाटने की कोशिश
मल्कीत सिंह, गायक
बचपन से पंजाब के लोकगायकों को सुन-सुनकर बडा हुआ। गाने लगा और 1983 में गुरु नानक यूनिवर्सिटी अमृतसर की ओर से लोकगीत प्रतियोगिता में गोल्ड मेडल मिला। उसके बाद मैं 1984 में इंग्लैंड चला गया। 1986 में वहां पहली बार प्रोफेशनल सिंगर के तौर पर एक पंजाबी गीत गाया।
मेरे अंदर लोकगीतों की अलख जगाने वालों में सबसे ऊंचा और पहला नाम है नुसरत फतेह अली ख्ां साहब का, जो न सिर्फ मेरे गुरु, बल्कि प्रेरणा भी हैं। जब मैंने विदेश में पंजाबी लोकगीत प्रस्तुत किए तो पहले काफी परेशानी हुई। मगर जैसे ही मेरा भांगडा पॉप तूतक तूतक तूतक तूतिया हई जमालो बाजार में आया दुनिया भंगडा की दीवानी हो गई।
अब तक मैं 36 देशों में धूम मचा चुका हूं। यूं तो मेरे शो अकसर खुले मैदान या किसी बडे स्टेडियम में होते थे, जहां लाखों लोग आते और जमकर नाचते, मगर 2007 में स्पेन में मुझे थिएटर शो के लिए बुलाया गया। वहां करीब 10 हजार श्रोताओं ने मुझे गंभीरता से सुना और ताली बजाकर खुशी का इजहार करते रहे। मजे की बात यह थी कि उन्हें न तो हिंदी आती थी, न पंजाबी और न ही अंग्रेजी।
उनकी गंभीरता को देखते हुए मैंने अपना शो शांति से शुरू किया, पर जैसे ही मैंने गुड नाल इश्क मीठा ओ हो गाया, सारे श्रोता मेरे सुर में सुर मिलाकर गाने लगे। शो के अंत में उन्होंने खडे होकर मेरा अभिवादन किया। वो लम्हा मेरे जीवन का यागदार लम्हा है।
भारतीय वाद्य यंत्रों का सबसे अधिक इस्तेमाल विदेशों में किया जाता है। एक कलाकार होने के नाते अपनी कला के माध्यम से मैंने हमेशा दो देशों के बीच की दूरी को पाटने की कोशिश की है। मैं अपने काम से संतुष्ट हूं मगर ऐसा लगता है जैसे बहुत कुछ करना अभी बाकी है।
सम्मान मिला मेरी भारतीयता को
एम.एफ. हुसैन, चित्रकार
मेरी अम्मी जुनैब अल्ला को प्यारी हुई तो मैं शायद 2-3 साल का था। मेरे वालिद फिदा साहब ने फिर निकाह किया और हम लोग पंढरपुर से इंदौर आए। वहां मेरी शिक्षा शुरू हुई। मास्टर जी बहुत मारा करते थे मुझे। क्योंकि पढने में ध्यान नहीं होता था मेरा। थोडा बडा हुआ तो मुंबई के जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट में दाखिल हो गया। मैं चित्रकला में अच्छा था। लेकिन यहां इसलिए भेजा गया क्योंकि मैं पढने में कमजोर था। यहां आया तो भी मुझे जेब खर्च नहीं मिलती थी। इसलिए सिनेमा के होर्डिग पेंट करने लगा था। मेरे लिए मेरी कला का मतलब तब केवल पैसा कमाना ही था। मैं फिल्मों के पोस्टर पेंट करने लगा और उसमें भी पूरी रुचि लेने लगा। फिर सूरत, बडौदा, अहमदाबाद शहरों में जाने लगा और रईसों के पोट्रेट्स बनाने लगा। आगे चलकर लैंडस्केप्स बनाने का भी मौका मिला।
1947 में बॉम्बे आर्ट सोसाइटी ने मेरा पहला सोलो एग्जिबिशन किया। धीरे-धीरे मुझे देश-विदेश में पहचान मिलने लगी। 1951 में मुझे चाइना जाने का मौका मिला। मुझे आत्मिक संतोष मिला कि भारत सरकार ने मेरे काम की नोटिस ली। बर्लिन फिल्म फेस्टिवल में मेरी बनाई एक फिल्म थ्रू द आईज ऑफ अ पेंटर को गोल्डन बिअर पुरस्कार मिला।
जो भी पुरस्कार मुझे मिले, मैं समझता हूं कि मेरी भारतीयता को सम्मान मिला। मेरे चित्रों का ओरिजिन भारतीय है। हमारी संस्कृति देश-विदेश के लोगों के दिल को छू रही है। जिसमें कला-संगीत से लेकर आयुर्वेद तक बहुत बडा खजाना है। इसके लिए हमें ऊपर वाले का शुक्रिया करना चाहिए कि हमारी यह धरोहर है, जिस पर हमें नाज है।
किसी अन्य देश की नहीं, भारत की ही देन है मार्शल आर्ट
टॉम ऑल्टर, चरित्र अभिनेता
अपने अभिनय के सफर के बारे में विस्तार से यही कह सकता हूं कि मेरा यह सफर एक किरदार से शुरू होता है और फिल्म के साथ खत्म हो जाता है। फिर दूसरी फिल्म में नए किरदार से शुरू होता है और फिर खत्म हो जाता है। इस शुरुआत और अंत में हर रोज एक कलाकार होने के नाते मैं कुछ नई चीजें जानने की कोशिश करता हूं।
आम तौर पर मेरे फिरंगी रूप के कारण मुझे विदेशी समझा जाता है। हालांकि यह सच है कि अपनी शक्ल के ही दम पर फिल्मों में मैंने कई ब्रिटिश किरदार हासिल किए और उनका सफल निर्वाह भी किया, मगर मूल रूप से मैं हूं तो भारतीय ही। लोग यदि ऐसा सोचते हैं कि मैं विदेशी हूं तो यह उनकी सही सोच नहीं है। दरअसल मेरे दादाजी अमेरिका से भारत आए थे। मेरे पिता जेम्स ऑल्टर यहां पैदा हुए और उन्हीं की तरह मेरा जन्म भी भारत में ही हुआ। मेरी मां बार्बरा मूल रूप से अमेरिका की थीं, जो मेरे पिता से शादी के बाद यहां आकर बस गई। सच कहूं तो सिर्फ भारत में जन्म लेने के कारण ही नहीं, बल्कि दिल से भी मैं स्वयं को भारतीय मानता हूं। यही वजह है कि अपने बडे भाई जॉन और बहन मार्ता की तरह अमेरिका में न बसकर मैंने भारत में रहने का निश्चय किया। क्योंकि मैं तो सिर्फ यहींरह सकता था, और कहींनहीं। मेरा जन्म उत्तराखंड के मसूरी शहर में हुआ है और मैं आज भी पहाड से और उसकी जडों से जुडा हूं। भारत की संस्कृति को शब्दों में भी बांधना नामुमकिन है। क्योंकि यहां सिर्फ एक संस्कृति नहीं है, जिसे परिभाषित किया जा सके। यहां अनेक राज्यों में हजारों मुल्क हैं और हजारों मुल्कों में उनकी ढेरों संस्कृतियां हैं। अगर हम भारत की खूबियों की बात करें तो यहां लोग बातें बहुत करते हैं और हां काम भी खूब करते हैं। मगर चटपटी बातों का मजा सिर्फहिंदुस्तान में ही लिया जा सकता है।
लगभग 40 वर्षो से अभिनय के क्षेत्र में होने के बावजूद मैं आज भी अपने काम से संतुष्ट नहीं हूं। हर रोज कुछ नया करने की कोशिश और नए लोगों से मिलने की खुशी मेरे लिए जीवन की शक्ति है। नए नाटकों, नई फिल्मों और नए धारावाहिकों में कुछ नया करने का मेरा प्रयास आज भी जारी है और जब तक मैं जीवित रहूंगा, यह प्रयास जारी रहेगा।
कब हम दिल से भारतीय एकता और अपनी संसकृति के लिए एक हो पाएंगे
भारतीय एकता संगठन

दूर देश में अपने देश की धुन

कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी
सदियों रहा है दुश्मन दौरे-जमां हमारा

अल्लामा इकबाल की इस बात में दम है, यह बात भारत का इतिहास साबित करता रहा है। एकदौर था जब भारत को सोने की चिडिया कहा जाता था। आज भारत में वैसी भौतिक संपन्नता भले न हो, फिर भी इस बात में आज भी कोई दो राय नहीं है-
सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा..
यह बात सौ फीसदी सच है और सिर्फ इसलिए नहीं कि हम हिंदुस्तानी हैं। दुनिया के पैमाने पर अगर देखें तो प्रकृति ने इतनी खूबियां दूसरे किसी देश को नहीं बख्शीं हैं, जितनी हिंदुस्तान को दी हैं। अकेली भारतभूमि ही है जहां सभी छह ऋतुएं आती-जाती हैं। पर्वत, सागर, मैदान, रेगिस्तान .. प्रकृति अपने हर रूप में अगर किसी एक देश की सीमा में मौजूद है तो वह सिर्फ भारत ही है। चाहे थोडी सी ही मात्रा में सही, पर लगभग सभी खनिज यहां पाए जाते हैं। सभी धार्मिक मतों को मानने वाले और सभी दर्शनों के मूलसूत्र यहां मौजूद हैं। जाहिर है, सर्वथा संपन्न प्रकृति ने ही हमारी सभ्यता और संस्कृति को भी हर तरह से संपन्न बनने के लिए प्रेरित किया है और हमारी परंपरा ने प्रकृति की उस प्रेरणा को स्वीकार कर साकार भी किया है।
संस्कृति के तंतु सूक्ष्म
सहस्राब्दियों पुरानी भारतीय संस्कृति और सभ्यता शुरू से ही सबके लिए आकर्षण का केंद्र रही है। इस आकर्षण की कई वजहें रही हैं। सबसे बडी वजह तो यह है कि काल का यह लंबा सफर भारतीय संस्कृति के लिए सिर्फ बाहर का सफर नहीं रहा है। हमारे लिए जीवन की यात्रा जितनी बाहर रही है, उतनी ही भीतर भी रही है। यही वजह है कि हम बडी मशीनों और जटिल तकनीक का आविष्कार भले न कर सके, पर जीवन को बेहतर और गुणवत्तापूर्ण बनाने के उपाय हमने बहुतेरे खोजे। योग से नियंत्रित और प्रकृति के साहचर्य की जो जीवनशैली भारत ने विकसित की है, उसे आज पूरी दुनिया अपनाना चाहती है। संगीत और नृत्य भी हमारे लिए सिर्फ मौज-मस्ती की चीज नहीं, आध्यात्मिक साधना और लोक कल्याण के उपाय रहे हैं। प्रहर और ऋतुओं के साथ रागों तथा ईश्वर की लीलाओं के साथ नृत्य विधाओं का जैसा सायुज्य भारतीय संस्कृति में रहा है, वह और कहीं नहीं मिलता। साहित्य, संगीत और नृत्य हमारे लिए सिर्फ भावनाओं की अभिव्यक्ति या मनोरंजन के साधन नहीं, बल्कि जीवन को सही दिशा देने के उपाय भी रहे हैं। सहस्राब्दियों पहले रचा गया ऐसा साहित्य अन्य किसी भी देश में नहीं पाया जाता जिसकी प्रासंगिकता आज तक बनी रह गई हो। यह कोई गर्वोक्ति नहीं, एक सत्य है कि भारत आज की हाइटेक जिदंगी की समस्याओं का समाधान भी अपने प्राचीन साहित्य में तलाशता है और अपनी इस कोशिश में वह हताश नहीं होता है।
वेद से विज्ञान तक
पश्चिमी मानसिकता के इतिहासकार चाहे कितनी भी कोशिश क्यों न कर लें, लेकिन इस बात से इनकार कर पाना किसी के लिए संभव ही नहीं है कि वेद ही दुनिया के सबसे प्राचीन ग्रंथ हैं। संगीत से लेकर चिकित्सा विज्ञान और निर्माण कला तक जीवन में वेदों की उपयोगिता अब दुनिया भर में साबित हो चुकी है। बेशक भौतिक रूप से अंतरिक्ष की यात्रा हम अमेरिका और रूस के बाद कर सके हैं, लेकिन अंतरिक्ष के रहस्यों की खोज के मामले में हमारी परंपरा इनसे बहुत आगे है। अपने सौर मंडल के बारे में नक्षत्र विज्ञान अब जो खोजें कर रहा है, भारतीय ज्योतिर्वेत्ता उनसे बहुत आगे का विश्लेषण कर चुके हैं। एक अरसा पहले तक पश्चिम और खास कर वैज्ञानिक दृष्टिसंपन्न लोगों के लिए मजाक का विषय रहा ज्योतिष, अब केवल भारत नहीं, दुनिया भर में शोध का विषय बन चुका है।
तमाम शोधों के बावजूद अभी वे इस निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सके हैं कि सौर मंडल में ग्रहों के राशि परिवर्तन का व्यक्ति पर क्या असर पडता है। जबकि भारत के ज्योतिषी सामान्य गणनाओं के आधार पर प्राय: सटीक भविष्यवाणी करते रहे हैं और एक हद तक ग्रहों के अशुभ प्रभावों से बचने के उपाय भी सुझाते रहे हैं। आम भारतीय आज भी जटिल रोगों के उपचार के लिए केवल दवा पर आश्रित नहीं रहता। वह दुआ की मदद भी लेता ही है। ऐसा वह जीवन की दूसरी समस्याओं के समाधान के क्रम में भी करता है। यह अलग बात है कि इस क्रम में वह कई बार ठगी का शिकार भी होता है, लेकिन ठग दुनिया की किस विधा में नहीं हैं? और दो-चार ठगों के कारण किसी विधा को ही गलत मान लेना कैसे संभव है?
सहअस्तित्व का संकल्प
यह भी एक आश्चर्यजनक तथ्य है कि जिस दौर में हमारा समाज तमाम तरह की रूढियों में उलझा था, उसी समय यहां चार्वाक हुए। सिर्फ प्रत्यक्ष को प्रमाण मानने और ईश्वर के अस्तित्व से इनकार करने वाले चार्वाक को भी भारतीय दर्शन की छह धाराओं में सम्मानजनक स्थान मिला। कपिलमुनि के सांख्य के साथ बुद्ध का सम्यक और जैन दर्शन का स्यादवाद हमारी परंपरा के अंग बने। वैचारिक सहअस्तित्व का इससे सुंदर उदाहरण मिलना दुनिया भर में मुश्किल है। विचार के प्रति सम्मान ही वह कारण है जिसने भारतीय संस्कृति को इतना उदात्त और चैतन्य बनाया।
सिर्फ विरोध के लिए विरोध तो किसी का भी किया जा सकता है, लेकिन गणित और विज्ञान की दुनिया को भारत की जो देन है, उसे कभी भुलाया नहीं जा सकता। दुनिया की सबसे प्राचीन भाषा संस्कृत है, यह निर्विवाद है। यह सर्वाधिक वैज्ञानिक भी है, इसे यूरोप ने साबित किया है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि हमारी संस्कृति पर विदेशी आक्रांताओं के हमले भी कम नहीं हुए, लेकिन इसके समानांतर यह तमाम सुरुचिसंपन्न विदेशियों के लिए आकर्षण का केंद्र भी बनी रही। हैरत की बात है कि भारत में ही सांची के स्तूप और कोणार्क के सूर्य मंदिर जैसी पुरातात्विक धरोहरों की खोज भी यूरोपीय मूल के लोगों ने ही की। भोजपुरी और अवधी जैसी जनभाषाओं की ताकत समझने और इन पर व्यवस्थित अनुसंधान करने वाले ग्रियर्सन भी यूरोप से ही आए थे। फादर कामिल बुल्के, डॉ.बारन्निकोफ, ओदोलेन स्मेकल जैसे लोग यह साबित करने के लिए काफी हैं कि इस संस्कृति की महक कितनी दूर-दूर तक जाती है। अभी भी स्पैनिश मूल के ऑस्कर पुजोल समेत कई लोग इस संस्कृति से अपने लगाव का परिचय दे रहे हैं। आइए देखते हैं कुछ ऐसे लोगों की नजर में भारत जिन्होंने भारत के बाहर की दुनिया देखी है।
आध्यात्मिक खोज पूरी हुई
राधानाथ स्वामी, संन्यासी
अमेरिका के एक यहूदी परिवार में जन्मा था मैं। नाम था- रिचर्ड स्लाविन। बचपन से ही आध्यात्मिक प्रवृत्ति का था। 19 वर्ष की आयु में ज्ञान एवं सत्य की खोज करने घर से निकल गया। दुनिया भर की यात्राएं की। यूरोप, मध्य-पूर्व से होता हुआ मैं हिमालय तक पहुंचा। भारत में आकर लगा कि मेरी आध्यात्मिक खोज पूरी हो गई है। मैं यहां इस्कॉन मंदिर से जुडा और मेरा नाम राधानाथ स्वामी हो गया।
शांति, संस्कृति, सभ्यता और सहनशीलता का अद्भुत गुण मैंने भारत में हीसीखा। 1971 में मुंबई इस्कॉन मंदिर के एक कार्यक्रम के दौरान ए.सी. भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद से मिला था, जिनसे बहुत प्रभावित हुआ। भारत के अनुभव बांटने वापस अमेरिका गया। पश्चिम वर्जीनिया में न्यू वृंदाबन इस्कॉन फार्म कम्युनिटी में पुजारी के रूप में सेवा की। आठ वर्ष बाद मुझे वहां स्कूलों-कॉलेजों में प्रचार का काम सौंपा गया। फिर भारत लौटा। मां आनंदमयी, स्वामी सच्चिदानंद, दलाई लामा और मदर टेरेसा से मिलकर मेरी लगन और बढ गई।
अपनी खोज-यात्रा पर मैंने पुस्तक दि जर्नी होम लिखी है, जिसमें शिकागो में मेरे जन्म से लेकर राधानाथ स्वामी बनने तक की पूरी यात्रा-कथा का वर्णन है।
वर्ष 1986 में मुंबई में राधा-गोपीनाथ मंदिर, चौपाटी की स्थापना हुई थी। 1994 में यह इस्कॉन से संबद्ध हुआ। यह आध्यात्मिक शिक्षण का केंद्र है, जहां भगवद् गीता व भगवद् पुराण का अध्ययन किया जाता है। पिछले 20 वर्र्षो से मैं यहां प्रचारक हूं। हमारी एक योजना है मिड डे मील, जिसके जरिये रोज 1 लाख 75 हजार गरीब बच्चों, मिशनरी अस्पतालों, नेत्र जांच कैंपों, स्कूलों के अलावा आपातकालीन सुविधा कार्यक्रमों में भागीदारी निभाई जाती है। मेरा मानना है कि जीवन ईश्वर का वरदान है। थोडी सी सजगता से आंतरिक शांति के साथ ही ईश्वर की अनुभूति भी की जा सकती है। बस मन में सेवाभाव होना चाहिए।
मेरी रगों में बसता है भारत
अन्ना स्मिरनोवा, नृत्यांगना
ध्यान एवं योग मेरे लिए प्रेरणा के मुख्य स्रोत रहे हैं और नृत्य ने तो मेरी जीवनधारा ही बदल दी। मैंने लगभग दस वर्ष यूक्रेन के न्याय मंत्रालय में विज्ञान अधिकारी के बतौर काम किया। 1996-97 में आईसीसीआर से स्कॉलरशिप मिली तो मैं भारत आई। यहां एक अलग दिशा मिली। भिन्न-भिन्न संस्कृतियों का बेजोड संगम मुझे भारत में ही देखने को मिला। भारत मुझे 16 वर्ष की कन्या की तरह सुंदर लगता है, जिसमें सौंदर्य, उत्साह, विचार, नवीनता सब एक साथ है। जे.कृष्णमूर्ति व आदि शंकराचार्य के दर्शन ने मुझे प्रभावित किया तो कबीर को भी पढती हूं।
यहां गुरु जय लक्ष्मी ईश्वर से मैंने भरतनाट्यम सीखा। श्रीमती वसंत सुंदरम और श्री दुर्गा प्रसाद से कर्नाटक संगीत सीखा। जे.जे.साई बाबू से छऊ नृत्य सीखा।
वापस यूक्रेन लौटने पर वर्ष 2003 में वहां इंडियन थिएटर नक्षत्र की स्थापना की। 2005 में डॉ. अब्दुल कलाम की प्रेरणा से यूक्रेन विश्वविद्यालय में भारतीय नृत्य स्टूडियो खोला गया, जहां मैं शिक्षिका नियुक्त हुई। 2006 में वहां तीन दिवसीय कंसर्ट हुआ, जिसमें पं.हरिप्रसाद चौरसिया के बांसुरी-वादन ने समां बांध दिया। भारतीय संस्कृति का वैश्वीकरण विषय पर हुई गोष्ठी में भारत, फ्रांस, यू.एस., रूस, मलेशिया और यूक्रेन की भागीदारी रही।
अभी मैं भारत-यूक्रेन संस्कृति में समरूपता विषय पर शोध कर रही हूं। हाल में भारतीय मंदिरों के नृत्य पर मेरी पुस्तक आई है। मैं पोलैंड, हंगरी, स्लोवाकिया, बेलारूस में भारतीय संस्कृति के प्रचार में लगी हूं। भारत मेरी रगों में बसता है और यहां बिताए वर्ष मेरे यादगार लमहों में हैं..।
विश्वशांति का सपना देखती हूं
कात्सु बेन, भिक्षुणी
पहली बार सांस्कृतिक आदान-प्रदान कार्यक्रम के तहत तीन वर्ष के लिए मैं भारत आई। काका कालेलकर मेरे शिक्षक थे। जापान में शीजोओका प्रांत के छोटे से शहर खाकेणवा में मेरा जन्म हुआ। तब बारहवीं की परीक्षा दे चुकी थी और डॉक्टर बनने का सपना देखती थी, लेकिन यहां आकर दिशा बदल गई। वापस जाने का समय आया तो दुविधा में पड गई। भारत रास आ गया था। मन में इच्छा थी कि गांधी के विश्वशांति के सपने और बौद्ध शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार करूं। मैं राजपुरा (पंजाब) की एक संस्था में काम करने लगी। हिंदी की रत्‍‌न और प्रभाकर परीक्षा पास की। 1962 तक पढती रही। इस बीच जापान आना-जाना होता रहता था। 1969 में संन्यास ले लिया, ताकि शांति मिशन में लग सकूं। मेरे गुरु फूजिई थे। द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान की हार से बडी अशांति थी। बच्चे अनाथ हो रहे थे, लोग दिशाहीन थे। गुरुजी इससे बहुत आहत हुए, उन्होंने अनाथ बच्चों के साथ रात-दिन मजदूरी करके जापान में एक शांति स्तूप बनवाया। फिर भारत में राजगीर का स्तूप बनवाया। गुरुजी गांधी जी और रवींद्रनाथ टैगोर से प्रभावित थे। गांधी जी की अहिंसक लडाई को उन्होंने करीब से देखा था। 1986 में गुरुजी की मृत्यु के बाद से मैं उनके व गांधी के सपने पूरा करने की कोशिश कर रही हूं। मेरी चाहत है कि जब तक जिंदा रहूं, मेरी हर सांस शांति के लिए हो। विश्व में शांति हो, भविष्य में कभी युद्ध न हो। गांधी का रामराज्य का सपना साकार हो, यही कामना है।
हमारी सबसे बडी थाती है योग
भरत ठाकुर, योग शिक्षक
बहुत कम उम्र में मैंने घर छोड दिया.. नौ साल की उम्र में गुरु श्री सुखदेव ब्रह्मचारी के साथ हिमालय चला गया और चौदह की उम्र तक साधना करता रहा। बाद में फिजियोलॉजी में मास्टर्स किया। फिर काफी रिसर्च के बाद आर्टिस्टिक योगा शुरू करवाया। मेरा मानना है कि हर शरीर का मेटाबॉलिज्म अलग होता है। उसके अनुसार ही योग करना चाहिए।
भारतीय संस्कृति की सबसे बडी थाती ही योग है। योग, आयुर्वेद और वेद इन्हीं में हमारी जडें हैं। आज विदेशों में भारतीय योग का काफी बोलबाला है। मैंने योग और मेडिटेशन के 400 सेंटर्स दुनिया भर में खोले हैं, ताकि सभी लोग इनके फायदे जानें-समझें। मुझे सुकून मिलता है यह देखकर कि अब विदेश के लोग भी भारतीय योग की अहमियत जानने-समझने लगे हैं। योग और ध्यान पर तीन फिल्में भी हमने बनाई हैं। पानी की उपयोगिता पर भी मेरा शोध जारी है। मेरे कई शिष्य देश-विदेश में बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। हाल ही में करीना कपूर का साइज जीरो काफी चर्चा का विषय बना था। इसके पीछे मेरा पॉवर योगा जिम्मेदार था। उन्हें पॉवर योगा की ट्रेनिंग देने वाली मेरी छात्र पायल गिडवानी हैं। मुझे दुख यह है कि कुछ लोग योग को लेकर गलत दावे करते हैं। वे योग से कई असाध्य रोगों के उपचार के दावे करते हैं। जबकि यह प्रिवेंटिव है, क्युरेटिव नहीं।
हमें अपनी संस्कृति के इस खजाने से किसी को गुमराह नहीं करना चाहिए। भारतीय संस्कृति इतनी समृद्ध है कि यह खजाना कभी खत्म नहीं होगा। मुझे खुशी होती है इस बात से कि योग को मानने वालों की तादाद अब देश-विदेश में हर तरफ बढती ही जा रही है।
विदेशियों को आकर्षित करती है आध्यात्मिकता
पं.अभय शंकर, नृत्याचार्य
मैंने अनेक देशों की यात्राएं की हैं और उनके संगीत-नृत्य को निकट से देखा है। मेरा मानना है कि कोई भी संगीत या नृत्य बुरा नहीं होता। बुरा कुछ है तो उसे प्रस्तुत करने का ढंग, जिसके लिए कलाकार दोषी हैं। हर कला में उस देश की संस्कृति प्रतिबिंबित होती है। भारतीय संगीत-नृत्य की गहराई और सच्चाई ने पूरी दुनिया को प्रभावित किया है। नए प्रयोग हर हाल में होने चाहिए, लेकिन शालीनता के साथ। नृत्य और विषय के स्तर पर भी मैंने कई तरह के प्रयोग किए हैं। मैंने खजुराहो में भूषण की कविताओं पर आधारित युद्घांग नामक कार्यक्रम किया था। गोस्वामी तुलसीदास रचित-को नहीं जानत है, जग में कपि संकट मोचन नाम तिहारो को केंद्र में रखकर हनुमान लीला का प्रदर्शन किया है। समलैंगिकता जैसे विषय को पेश किया है, लेकिन पूरी शालीनता के साथ। मैं बुराई को भी अच्छे ढंग से पेश करना चाहता हूं। विद्रूपता और भयावहता को भी सुंदरता के साथ पेश करने का प्रयास करता हूं।
कथक प्रयोगधर्मी खुला नृत्य है, इसलिए इसमें हो रहे प्रयोगों को मैं बुरा नहीं मानता हूं। लेकिन करने को कुछ नहीं है, इसलिए बैठे-बिठाए एक प्रयोग कर लें, इसे मैं उचित नहीं समझता हूं। भारत में प्रतिभाओं की कमी नहीं है। यहां आज भी कई अच्छे कलाकार हैं। वर्ष में कम से कम एक बार मैं भारत अवश्य आता हूं, क्योंकि मुझे भारत से प्यार है। मैं भारत की यात्रा को तीर्थयात्रा मानता हूं।
भारतीय विद्या भवन अपनी तरह की अनूठी और एकमात्र संस्था है। इसलिए जब दस वर्ष पूर्व यहां से गुरु पद को स्वीकारने का निमंत्रण मिला तो मैं इंकार नहीं कर सका। वहां मैं भारतीय-गैर भारतीय छात्र-छात्राओं को मात्र कथक नृत्य की ही शिक्षा नहीं देता, बल्कि भारतीय सभ्यता और संस्कृति भी सिखाता हूं। इसी क्रम में चीन, स्पेन, फ्रांस, इटली, दक्षिण और उत्तरी कोरिया, दक्षिण अफ्रीका, जर्मनी, ऑस्ट्रिया एवं अमेरिका की भी सांगीतिक यात्रा हम कर चुके हैं।
मैंने देश-विदेश में अनेक कार्यक्रम किए हैं। विदेशी नृत्यों के साथ कथक की जुगलबंदी की है। लुई बैंक्स शिवमणि और शंकर महादेवन आदि के साथ फ्यूजन किया है। लेकिन आगरा का वह कार्यक्रम मेरे लिए अविस्मरणीय है जिसमें मुझे अपने गुरु पंडित बिरजू महाराज जी के साथ नृत्य प्रदर्शन का अवसर मिला था।
अभी मेरा पूरा ध्यान सिर्फ कथक नृत्य को समृद्ध करने पर है। विदेशों में अपने विशुद्ध रूप में यह कैसे लोकप्रिय हो? इस पर मेरा ध्यान केंद्रित है। मुझे नहीं लगता कि सफलताओं और उपलब्धियों पर इतराने का समय अभी आया है। इतना जरूर है कि जब कभी प्रशंसा होती है तो लगता है कि मैं सही दिशा में आगे बढ रहा हूं।
भारतीय कलाओं की आध्यात्मिकता विदेशियों को इसकी ओर आकृष्ट करती है। हमारे लिए संगीत नृत्य मनोरंजन का साधन नहीं है। जीवन जीने का माध्यम है। मुक्ति का मार्ग है। नृत्य की बात करें तो मुखाभिनय भारतीय नृत्यों की वह विशेषता है जो किसी विदेशी नृत्य में नहीं मिलती।
हमें पहचान देती है संस्कृति
दीपिका कथरानी, नृत्यांगना
मूल रूप से तो मैं गणित व स्टैटिस्टिक्स की छात्रा रही हूं और अभी भी मैं स्टैटिस्टिक्स के क्षेत्र में ही कार्यरत हूं। मैंने विशेष योग्यता सहित कथक में डिप्लोमा किया है। लगभग 10 वर्ष पूर्व मैं एकसहेली के साथ यूं ही एक संगीत कार्यक्रम में चली गई थी। वहीं गुरु अभय शंकर एवं उनकी कुछ शिष्याओं का कार्यक्रम देखा तो लगा कि मुझे यह नृत्य सीखना चाहिए, ताकि मैं मन के बोझ से मुक्ति पा सकूं। गुरुजी से अनुरोध किया कि वे व्यक्तिगत रूप से मुझे सिखा दें, क्योंकि मैं ऑफिस में काम करती हूं। लेकिन उनका कहना था कि नृत्य सीखना है तो समय निकालना पडेगा। अंतत: मैंने ऑफिस के समय में फेरबदल करके भारतीय विद्या भवन में जाने का समय निकाला। शुरू में मैंने इसे मन बहलाव के साधन के रूप में अपनाया था, लेकिन धीरे-धीरे इसके प्रति मेरी गंभीरता बढती गई। लोगों की सकारात्मक प्रतिक्रियाओं और प्रशंसकों ने भी मुझे जिम्मेदारी का एहसास कराया।
नृत्य के साथ-साथ भारतीय शास्त्रीय गायन में भी मेरी गहरी रुचि है। मैंने यूनाइटेड किंगडम के अनेक शहरों में नृत्य प्रदर्शन किया है। साथ ही गुरु अभय शंकर जी के सहायक के रूप में भी काम किया है। उनकी डांस कंपनी के साथ मैं लंबे समय से जुडी हुई हूं। उनके दल के साथ विभिन्न देशों में मैंने नृत्य प्रदर्शन किया है। भारत में नृत्य करना मेरे लिए किसी सपने के सच होने जैसा है। क्योंकि इसी देश ने सभ्यता का प्रकाश पूरी दुनिया को दिया है।
हम मूल से तो भारतीय ही हैं, लेकिन हमारे पूर्वज काफी पहले इंग्लैंड में बस गए थे। मैं भी वहीं केमाहौल में जन्मी और पली-बढी हूं। लेकिन भारतीय सभ्यता और संस्कृति के साथ-साथ भारतीय परिधान और कलाएं मुझे विशेष पसंद हैं। क्योंकि ये चीजें मुझे भीड में सबसे अलग पहचान दिलाती हैं, विशिष्ट बनाती हैं।
वैसे तो मेरा मानना यह है कि दुनिया का कोई भी संगीत बुरा नहीं है। हर देश के संगीत के साथ उस देश की पहचान जुडी होती है। लेकिन भारतीय संगीत-नृत्य की तो बात ही निराली है। तभी तो यहूदी मेन्युहीन, जुबीन मेहता, जॉर्ज हैरिसन जैसे महान कलाकारों ने इसकी श्रेष्ठता को स्वीकारा, इसे सीखने-समझने का प्रयास किया। दरअसल, भारतीय संगीत की गहराई, इसकी आध्यात्मिकता इसे श्रेष्ठता के सर्वोच्च पायदान पर पहुंचाती है। इसलिए पूरी दुनिया में भारतीय संगीत-नृत्य को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। दिल्ली में कला प्रस्तुति के अवसर को मैं सुनहरा मौका मानती हूं, लेकिन यह किसी अग्नि परीक्षा के समान भी है। कथक के गढ में आकर आचार्यो का आशीर्वाद पाना कोई आसान बात नहीं है।
गरबा है मुझे बेहद पसंद
आरती मानेक, नृत्यांगना
जन्म तो मेरा युगांडा में हुआ, लेकिन भारतीयता के प्रति मेरे मन में शुरू से आकर्षण था। मेरी रुचि शास्त्रीय संगीत और नृत्य में थी, लेकिन शुरुआती दौर में इसे सीखने का सुयोग नहीं मिल सका। दो भिन्न देशों का मामला होने के कारण लंबे समय तक भारत में रहना भी संभव नहीं था। तो मैं लोक नृत्य सीखने लगी। बृज का रास और गुजरात का गरबा मुझे विशेष पसंद है। मैंने इन्हें सीखा और फिर अपने देश लौटकर लोगों को सिखाने लगी।
वह दिन मेरे लिए बेहद रोमांचक और यादगार है जब मेरी टीम ने उत्तरी अमेरिकन और कनेडियन टीम के मुकाबले रास और गरबा करके ओहियो में प्रथम पुरस्कार जीता। जीत का यह सिलसिला चलता रहा।
बाद में मैं कैलिफोर्निया आ गई। यहां श्याम भाई मिठाई वाला के निर्देशन में 135 अव्यावसायिक कलाकारों को लेकर कई नृत्य नाटिकाएं तैयार की, जिनमें प्रमुख थीं नारी तू नारायणी, रामायण और गोपाल कृष्ण कन्हैया आदि। इन दिनों मैं अपने पति सुरू मानेक के साथ लंदन में हूं और गुरू पंडित अभय शंकर से कथक सीख रही हूं। हमारी भारतीय कलाओं में कल्पना और यथार्थ का बहुत ही सुंदर सम्मिश्रण होता है। हम कडवी बात भी सुंदर ढंग से दिखा पाने में सक्षम हैं। अत: पर्यावरण, आतंकवाद, महिला भ्रूण हत्या जैसे विषयों को तो अपनी नृत्य संरचनाओं से प्रकट करते ही हैं, विश्व बंधुत्व का संदेश भी इसके माध्यम से देते हैं।
देशों के बीच की दूरी पाटने की कोशिश
मल्कीत सिंह, गायक
बचपन से पंजाब के लोकगायकों को सुन-सुनकर बडा हुआ। गाने लगा और 1983 में गुरु नानक यूनिवर्सिटी अमृतसर की ओर से लोकगीत प्रतियोगिता में गोल्ड मेडल मिला। उसके बाद मैं 1984 में इंग्लैंड चला गया। 1986 में वहां पहली बार प्रोफेशनल सिंगर के तौर पर एक पंजाबी गीत गाया।
मेरे अंदर लोकगीतों की अलख जगाने वालों में सबसे ऊंचा और पहला नाम है नुसरत फतेह अली ख्ां साहब का, जो न सिर्फ मेरे गुरु, बल्कि प्रेरणा भी हैं। जब मैंने विदेश में पंजाबी लोकगीत प्रस्तुत किए तो पहले काफी परेशानी हुई। मगर जैसे ही मेरा भांगडा पॉप तूतक तूतक तूतक तूतिया हई जमालो बाजार में आया दुनिया भंगडा की दीवानी हो गई।
अब तक मैं 36 देशों में धूम मचा चुका हूं। यूं तो मेरे शो अकसर खुले मैदान या किसी बडे स्टेडियम में होते थे, जहां लाखों लोग आते और जमकर नाचते, मगर 2007 में स्पेन में मुझे थिएटर शो के लिए बुलाया गया। वहां करीब 10 हजार श्रोताओं ने मुझे गंभीरता से सुना और ताली बजाकर खुशी का इजहार करते रहे। मजे की बात यह थी कि उन्हें न तो हिंदी आती थी, न पंजाबी और न ही अंग्रेजी।
उनकी गंभीरता को देखते हुए मैंने अपना शो शांति से शुरू किया, पर जैसे ही मैंने गुड नाल इश्क मीठा ओ हो गाया, सारे श्रोता मेरे सुर में सुर मिलाकर गाने लगे। शो के अंत में उन्होंने खडे होकर मेरा अभिवादन किया। वो लम्हा मेरे जीवन का यागदार लम्हा है।
भारतीय वाद्य यंत्रों का सबसे अधिक इस्तेमाल विदेशों में किया जाता है। एक कलाकार होने के नाते अपनी कला के माध्यम से मैंने हमेशा दो देशों के बीच की दूरी को पाटने की कोशिश की है। मैं अपने काम से संतुष्ट हूं मगर ऐसा लगता है जैसे बहुत कुछ करना अभी बाकी है।
सम्मान मिला मेरी भारतीयता को
एम.एफ. हुसैन, चित्रकार
मेरी अम्मी जुनैब अल्ला को प्यारी हुई तो मैं शायद 2-3 साल का था। मेरे वालिद फिदा साहब ने फिर निकाह किया और हम लोग पंढरपुर से इंदौर आए। वहां मेरी शिक्षा शुरू हुई। मास्टर जी बहुत मारा करते थे मुझे। क्योंकि पढने में ध्यान नहीं होता था मेरा। थोडा बडा हुआ तो मुंबई के जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट में दाखिल हो गया। मैं चित्रकला में अच्छा था। लेकिन यहां इसलिए भेजा गया क्योंकि मैं पढने में कमजोर था। यहां आया तो भी मुझे जेब खर्च नहीं मिलती थी। इसलिए सिनेमा के होर्डिग पेंट करने लगा था। मेरे लिए मेरी कला का मतलब तब केवल पैसा कमाना ही था। मैं फिल्मों के पोस्टर पेंट करने लगा और उसमें भी पूरी रुचि लेने लगा। फिर सूरत, बडौदा, अहमदाबाद शहरों में जाने लगा और रईसों के पोट्रेट्स बनाने लगा। आगे चलकर लैंडस्केप्स बनाने का भी मौका मिला।
1947 में बॉम्बे आर्ट सोसाइटी ने मेरा पहला सोलो एग्जिबिशन किया। धीरे-धीरे मुझे देश-विदेश में पहचान मिलने लगी। 1951 में मुझे चाइना जाने का मौका मिला। मुझे आत्मिक संतोष मिला कि भारत सरकार ने मेरे काम की नोटिस ली। बर्लिन फिल्म फेस्टिवल में मेरी बनाई एक फिल्म थ्रू द आईज ऑफ अ पेंटर को गोल्डन बिअर पुरस्कार मिला।
जो भी पुरस्कार मुझे मिले, मैं समझता हूं कि मेरी भारतीयता को सम्मान मिला। मेरे चित्रों का ओरिजिन भारतीय है। हमारी संस्कृति देश-विदेश के लोगों के दिल को छू रही है। जिसमें कला-संगीत से लेकर आयुर्वेद तक बहुत बडा खजाना है। इसके लिए हमें ऊपर वाले का शुक्रिया करना चाहिए कि हमारी यह धरोहर है, जिस पर हमें नाज है।
किसी अन्य देश की नहीं, भारत की ही देन है मार्शल आर्ट
टॉम ऑल्टर, चरित्र अभिनेता
अपने अभिनय के सफर के बारे में विस्तार से यही कह सकता हूं कि मेरा यह सफर एक किरदार से शुरू होता है और फिल्म के साथ खत्म हो जाता है। फिर दूसरी फिल्म में नए किरदार से शुरू होता है और फिर खत्म हो जाता है। इस शुरुआत और अंत में हर रोज एक कलाकार होने के नाते मैं कुछ नई चीजें जानने की कोशिश करता हूं।
आम तौर पर मेरे फिरंगी रूप के कारण मुझे विदेशी समझा जाता है। हालांकि यह सच है कि अपनी शक्ल के ही दम पर फिल्मों में मैंने कई ब्रिटिश किरदार हासिल किए और उनका सफल निर्वाह भी किया, मगर मूल रूप से मैं हूं तो भारतीय ही। लोग यदि ऐसा सोचते हैं कि मैं विदेशी हूं तो यह उनकी सही सोच नहीं है। दरअसल मेरे दादाजी अमेरिका से भारत आए थे। मेरे पिता जेम्स ऑल्टर यहां पैदा हुए और उन्हीं की तरह मेरा जन्म भी भारत में ही हुआ। मेरी मां बार्बरा मूल रूप से अमेरिका की थीं, जो मेरे पिता से शादी के बाद यहां आकर बस गई। सच कहूं तो सिर्फ भारत में जन्म लेने के कारण ही नहीं, बल्कि दिल से भी मैं स्वयं को भारतीय मानता हूं। यही वजह है कि अपने बडे भाई जॉन और बहन मार्ता की तरह अमेरिका में न बसकर मैंने भारत में रहने का निश्चय किया। क्योंकि मैं तो सिर्फ यहींरह सकता था, और कहींनहीं। मेरा जन्म उत्तराखंड के मसूरी शहर में हुआ है और मैं आज भी पहाड से और उसकी जडों से जुडा हूं। भारत की संस्कृति को शब्दों में भी बांधना नामुमकिन है। क्योंकि यहां सिर्फ एक संस्कृति नहीं है, जिसे परिभाषित किया जा सके। यहां अनेक राज्यों में हजारों मुल्क हैं और हजारों मुल्कों में उनकी ढेरों संस्कृतियां हैं। अगर हम भारत की खूबियों की बात करें तो यहां लोग बातें बहुत करते हैं और हां काम भी खूब करते हैं। मगर चटपटी बातों का मजा सिर्फहिंदुस्तान में ही लिया जा सकता है।
लगभग 40 वर्षो से अभिनय के क्षेत्र में होने के बावजूद मैं आज भी अपने काम से संतुष्ट नहीं हूं। हर रोज कुछ नया करने की कोशिश और नए लोगों से मिलने की खुशी मेरे लिए जीवन की शक्ति है। नए नाटकों, नई फिल्मों और नए धारावाहिकों में कुछ नया करने का मेरा प्रयास आज भी जारी है और जब तक मैं जीवित रहूंगा, यह प्रयास जारी रहेगा।
कब हम दिल से भारतीय एकता और अपनी संसकृति के लिए एक हो पाएंगे
भारतीय एकता संगठन

ब्रिटेन में गुलाबी रंग को लेकर बहस

क्या रंग भी समाज में बहस और राजनीतिक मुद्दा बन सकता है? जरा ब्रिटेन के इस मामले पर गौर कीजिए। यहां पर पिंक यानी गुलाबी रंग के प्रति लड़कियों की दीवानगी समाजिक और राजनीतिक बहस का कारण बन गई है।
पूरे ब्रिटेन में 'पिंकस्टिंक्स' नाम का एक आंदोलन चल रहा है, जिसमें लोगों से उन दुकानों का बहिष्कार करने की अपील की गई है, जो लड़कियों के ऐसे कपड़े और खिलौने बेचती हैं, जिनका रंग गुलाबी है। अब इस सामाजिक लड़ाई को राजनीतिक रंग देने का काम किया है, लेबर पार्टी की सांसद ब्रिगेट पेंटिस ने। उन्होंन इस आंदोलन को अपना समर्थन देने की घोषणा की है।
गुलाबी रंग का विरोध करने वालों का कहना है कि यह रंग लड़कियों को मानसिक रूप से कुंद करता है। उन्हें सामाजिक और निजी जीवन में निष्क्रिय बनाता है और उनके मन में गहराई से यह बात जमाता है कि खूबसूरती बुद्धिमानी से ऊपर होती है। पेंटिस का कहना है कि लड़कियों को 'गुलाबी गुड़िया' बना देना, उनके भविष्य के लिए घातक है। इससे उनका ध्यान जीवन की चुनौतियों और कैरियर पर से खत्म हो जाता है। वे एक काल्पनिक दुनिया में रहने लगती हैं।
पेंटिस का तर्क है जिस तरह से लड़कों के खिलौने वाली बंदूकों पर इसलिए पाबंदी लगाई गई है कि उनकी मानसिकता अपराधियों वाली न बने, इसी तरह लड़कियों का भविष्य सुधारने के लिए हमें 'पिंक' पर प्रतिबंध लगाना होगा। गुलाबी रंग के प्रति लड़कियों की दीवानगी को खत्म करके ही उन्हें कमजोर भविष्य की राह पर बढ़ने से बचाया जा सकता है।
हालांकि कई अभिभावक गुलाबी चीजों को लड़कियों के लिए प्रतिबंधित करने के पक्ष में नहीं हैं। उनका कहना है कि जैसे घोड़े को पानी तक तो ले जा सकते हैं, परंतु उसे पानी नहीं पिला सकते। उसी तरह से आप लड़कियों को समझा तो सकते हैं, लेकिन उन्हें रोक नहीं सकते।
कारगर है रंग गुलाबी
गुलाबी रंग आंखों को भाता है और 'कलर थैरेपी' में उसका इस्तेमाल त्वचा को सुंदर बनाने और प्रतिरोधक तंत्र को मजबूत करने के लिए किया जाता है। यह व्यक्ति के शरीर और मन पर सकारात्मक प्रभाव डालता है। यह क्रोध को नियंत्रित करता है। गुलाबी रंग व्यक्ति के मन में प्यार, दुलार
सौजन्य से
दैनिक जागरण
भारतीय एकता संगठन

Wednesday, December 2, 2009

शिरडी के साईं बाबा की महिमा

शिरडी के साईबाबा आज असंख्य लोगों के आराध्यदेव बन चुके है। उनकी कीर्ति दिन दोगुनी-रात चौगुनी बढ़ती जा रही है। यद्यपि बाबा के द्वारा नश्वर शरीर को त्यागे हुए अनेक वर्ष बीत चुके है, परंतु वे अपने भक्तों का मार्गदर्शन करने के लिए आज भी सूक्ष्म रूप से विद्यमान है। शिरडी में बाबा की समाधि से भक्तों को अपनी शंका और समस्या का समाधान मिलता है। बाबा की दिव्य शक्ति के प्रताप से शिरडी अब महातीर्थ बन गई है।
कहा जाता है कि सन् 1854 ई.में पहली बार बाबा जब शिरडी में देखे गए, तब वे लगभग सोलह वर्ष के थे। शिरडी के नाना चोपदार की वृद्ध माता ने उनका वर्णन इस प्रकार किया है- एक तरुण, स्वस्थ, फुर्तीला तथा अति सुंदर बालक सर्वप्रथम नीम के वृक्ष के नीचे समाधि में लीन दिखाई पड़ा। उसे सर्दी-गर्मी की जरा भी चिंता नहीं थी। इतनी कम उम्र में उस बालयोगी को अति कठिन तपस्या करते देखकर लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ। दिन में वह साधक किसी से भेंट नहीं करता था और रात में निर्भय होकर एकांत में घूमता था। गांव के लोग जिज्ञासावश उससे पूछते थे कि वह कौन है और उसका कहां से आगमन हुआ है? उस नवयुवक के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर लोग उसकी तरफ सहज ही आकर्षित हो जाते थे। वह सदा नीम के पेड़ के नीचे बैठा रहता था और किसी के भी घर नहीं जाता था। यद्यपि वह देखने में नवयुवक लगता था तथापि उसका आचरण महात्माओं के सदृश था। वह त्याग और वैराग्य का साक्षात् मूर्तिमान स्वरूप था।
कुछ समय शिरडी में रहकर वह तरुण योगी किसी से कुछ कहे बिना वहां से चला गया। कई वर्ष बाद चांद पाटिल की बारात के साथ वह योगी पुन: शिरडी पहुंचा। खंडोबा के मंदिर के पुजारी म्हालसापति ने उस फकीर का जब 'आओ साई' कहकर स्वागत किया, तब से उनका नाम 'साईबाबा' पड़ गया। शादी हो जाने के बाद वे चांद पाटिल की बारात के साथ वापस नहीं लौटे और सदा-सदा के लिए शिरडी में बस गये। वे कौन थे? उनका जन्म कहां हुआ था? उनके माता-पिता का नाम क्या था? ये सब प्रश्न अनुत्तरित ही है। बाबा ने अपना परिचय कभी दिया नहीं। अपने चमत्कारों से उनकी प्रसिद्धि चारों ओर फैल गई और वे कहलाने लगे 'शिरडी के साईबाबा'।
साईबाबा ने अनगिनत लोगों के कष्टों का निवारण किया। जो भी उनके पास आया, वह कभी निराश होकर नहीं लौटा। वे सबके प्रति समभाव रखते थे। उनके यहां अमीर-गरीब, ऊंच-नीच, जाति-पाति, धर्म-मजहब का कोई भेदभाव नहीं था। समाज के सभी वर्ग के लोग उनके पास आते थे। बाबा ने एक हिंदू द्वारा बनवाई गई पुरानी मसजिद को अपना ठिकाना बनाया और उसको नाम दिया 'द्वारकामाई'। बाबा नित्य भिक्षा लेने जाते थे और बड़ी सादगी के साथ रहते थे। भक्तों को उनमें सब देवताओं के दर्शन होते थे। कुछ दुष्ट लोग बाबा की ख्याति के कारण उनसे ईष्र्या-द्वेष रखते थे और उन्होंने कई षड्यंत्र भी रचे। बाबा सत्य, प्रेम, दया, करुणा की प्रतिमूर्ति थे। साईबाबा के बारे में अधिकांश जानकारी श्रीगोविंदराव रघुनाथ दाभोलकर द्वारा लिखित 'श्री साई सच्चरित्र' से मिलती है। मराठी में लिखित इस मूल ग्रंथ का कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। साईनाथ के भक्त इस ग्रंथ का पाठ अनुष्ठान के रूप में करके मनोवांछित फल प्राप्त करते है।
साईबाबा के निर्वाण के कुछ समय पूर्व एक विशेष शकुन हुआ, जो उनके महासमाधि लेने की पूर्व सूचना थी। साईबाबा के पास एक ईट थी, जिसे वे हमेशा अपने साथ रखते थे। बाबा उस पर हाथ टिकाकर बैठते थे और रात में सोते समय उस ईट को तकिये की तरह अपने सिर के नीचे रखते थे। सन् 1918 ई.के सितंबर माह में दशहरे से कुछ दिन पूर्व मसजिद की सफाई करते समय एक भक्त के हाथ से गिरकर वह ईट टूट गई। द्वारकामाई में उपस्थित भक्तगण स्तब्ध रह गए। साईबाबा ने भिक्षा से लौटकर जब उस टूटी हुई ईट को देखा तो वे मुस्कुराकर बोले- 'यह ईट मेरी जीवनसंगिनी थी। अब यह टूट गई है तो समझ लो कि मेरा समय भी पूरा हो गया।' बाबा तब से अपनी महासमाधि की तैयारी करने लगे।
नागपुर के प्रसिद्ध धनी बाबू साहिब बूटी साईबाबा के बड़े भक्त थे। उनके मन में बाबा के आराम से निवास करने हेतु शिरडी में एक अच्छा भवन बनाने की इच्छा उत्पन्न हुई। बाबा ने बूटी साहिब को स्वप्न में एक मंदिर सहित वाड़ा बनाने का आदेश दिया तो उन्होंने तत्काल उसे बनवाना शुरू कर दिया। मंदिर में द्वारकाधीश श्रीकृष्ण की प्रतिमा स्थापित करने की योजना थी।
15 अक्टूबर सन् 1918 ई. को विजयादशमी महापर्व के दिन जब बाबा ने सीमोल्लंघन करने की घोषणा की तब भी लोग समझ नहीं पाए कि वे अपने महाप्रयाण का संकेत कर रहे है। महासमाधि के पूर्व साईबाबा ने अपनी अनन्य भक्त श्रीमती लक्ष्मीबाई शिंदे को आशीर्वाद के साथ 9 सिक्के देने के पश्चात कहा- 'मुझे मसजिद में अब अच्छा नहीं लगता है, इसलिए तुम लोग मुझे बूटी के पत्थर वाड़े में ले चलो, जहां मैं आगे सुखपूर्वक रहूंगा।' बाबा ने महानिर्वाण से पूर्व अपने अनन्य भक्त शामा से भी कहा था- 'मैं द्वारकामाई और चावड़ी में रहते-रहते उकता गया हूं। मैं बूटी के वाड़े में जाऊंगा जहां ऊंचे लोग मेरी देखभाल करेगे।' विक्रम संवत् 1975 की विजयादशमी के दिन अपराह्न 2.30 बजे साईबाबा ने महासमाधि ले ली और तब बूटी साहिब द्वारा बनवाया गया वाड़ा (भवन) बन गया उनका समाधि-स्थल। मुरलीधर श्रीकृष्ण के विग्रह की जगह कालांतर में साईबाबा की मूर्ति स्थापित हुई।
महासमाधि लेने से पूर्व साईबाबा ने अपने भक्तों को यह आश्वासन दिया था कि पंचतत्वों से निर्मित उनका शरीर जब इस धरती पर नहीं रहेगा, तब उनकी समाधि भक्तों को संरक्षण प्रदान करेगी। आज तक सभी भक्तजन बाबा के इस कथन की सत्यता का निरंतर अनुभव करते चले आ रहे है। साईबाबा ने प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से अपने भक्तों को सदा अपनी उपस्थिति का बोध कराया है। उनकी समाधि अत्यन्त जागृत शक्ति-स्थल है।
साईबाबा सदा यह कहते थे- 'सबका मालिक एक'। उन्होंने साम्प्रदायिक सद्भावना का संदेश देकर सबको प्रेम के साथ मिल-जुल कर रहने को कहा। बाबा ने अपने भक्तों को श्रद्धा और सबूरी (संयम) का पाठ सिखाया। जो भी उनकी शरण में गया उसको उन्होंने अवश्य अपनाया। विजयादशमी उनकी पुण्यतिथि बनकर हमें अपनी बुराइयों (दुर्गुणों) पर विजय पाने के लिए प्रेरित करती है। नित्यलीलालीन साईबाबा आज भी सद्गुरु के रूप में भक्तों को सही राह दिखाते है और उनके कष्टों को दूर करते है। साईनाथ के उपदेशों में संसार के सी धर्मो का सार है। अध्यात्म की ऐसी महान विभूति के बारे में जितना भी लिखा जाए, कम ही होगा। उनकी यश-पताका आज चारों तरफ फहरा रही है। बाबा का 'साई' नाम मुक्ति का महामंत्र बन गया है और शिरडी महातीर्थ।
डॉ.अतुल टण्डन
अवतारी संत
ईंराम किसी दिव्य शक्ति के अवतार ही थे। उनके अलौकिक कृत्यों के कारण कोई उन्हे विट्ठल का अवतार मानता था तो कोई शिव का तो कोई साक्षात् परब्रह्म का। उनके अवतारी पुरुष होने के संबंध में 'शिरडी के साईं' खंड काव्य की ये पंक्तियां द्रष्टव्य है-
द्वापर का ही कृष्ण कहो या राम रहा जो त्रेता का।
शिरडी में साई बन आया
गौरव लिए विजेता का॥
विजित हुए थे पाप-ताप सब त्रसित हुए पापाचारी।
अनुगतों और भक्तों का तो बन आया वह भयहारी॥
इस फकीर से प्रतीत होते व्यक्ति की शक्ति अद्भुत थी। उसने कितने कोढि़यों को काया दी, कितने नि:संतान को संतान दी, कितने को असाध्य आधि-व्याधियों से मुक्ति दी, इसकी गणना नहीं हो सकती। यह कोई कल्पित गाथा नहीं है। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है जिसे उस समय के गण्यमान्य व्यक्तियों ने अपनी पुस्तकों तथा अपने आलेखों में अंकित किया। ये सामग्रियां आज भी उपलब्ध है। साई ने असंख्य चमत्कार किए जिनमें एक-दो का उल्लेख ही हम यहां कर पाएंगे।
साई कहां पैदा हुए, कब पैदा हुए, यह कोई नहीं जानता। वह अकस्मात् 16-17 वर्ष के युवक के रूप में शिरडी के एक नीम वृक्ष के नीचे लोगों को दिखाई पड़े थे। मुख से एक ऐसी कान्ति फूटती थी मानो वह एक विलक्षण सिद्ध पुरुष हों। अपनी निरन्तर उपस्थिति से उन्होंने नीम-वृक्ष को भी धन्य कर दिया।
'श्री साईं सच्चरित्र' के अनुसार-
सदा निंबवृक्षस्य मूलाधिवासात्।
सुधास्त्राविणं तिक्तमप्यप्रियं तम्।
तरुं कल्पवृक्षाधिकं साधयन्तम्।
नमामीश्वरं सद्गुरुं साईनाथम्।
मैं सद्गुरु साईनाथ का नमन करता हूं, जिनका सामीप्य पाकर नीम-वृक्ष तिक्त होकर भी सदा अमृत-वर्षण करता है। यह पेड़ कल्पवृक्ष से भी अधिक फलदाई है।
नीम-वृक्ष के नीचे विराजने की पुष्टि इन मोहक काव्य पंक्तियों से भी होती है-
नीम वृक्ष के नीचे ही थी
लगी पालकी बालक की।
वय होगी सोलह-सत्रह की
तेजस्वी भवपालक की॥
साई साम्प्रदायिक सद्भाव के साक्षात् प्रतीक थे। वह हिंदू और मुसलमान दोनों थे। मुलिम वेशभूषा थी, सदा 'अल्लाह मालिक' जपते थे, एक मसजिद को ही अपना आवास बनाया था पर इसे नाम दिया था 'द्वारिका माई'। इसी जगह मुसलमानों का 'उर्स' महोत्सव होता था तो रामनवमी का कार्यक्रम भी क्रियान्वित होता था। निस्संदेह यह सर्वज्ञाता कृष्ण की द्वारिका के महत्व से अच्छी तरह परिचित था जो 'स्कन्द पुराण' में यों वर्णित है-चतुर्वर्णामपि वर्गाणां यत्र द्वाराणि सर्वत:। अतो द्वारावतीत्युक्ता विद्वद्भिस्तत्व वादिभि:॥
चारो वर्णों के लोगों के लिए जिसके द्वार सर्वत्र खुले है उसे ही तत्व ज्ञानी विद्वान द्वारिका कहते हैं।
साईं बाबा की 'द्वारिका माई' के द्वार भी सदा उद्घाटित थे-गरीब-अमीर, साधु-असाधु और हिंदू-मुसलमान सबके लिए।
साईं बाबा इस मसजिद को नित्य संध्या दीपों से सजाते थे जिसके लिए वह आस-पास के दुकानों से तेल मांगते थे। एक दिन दुकानदारों ने निश्चय किया कि अब मुफ्त में तेल नहीं देंगे। साईं ने सभी मिट्टी के दीयों में तेल के बदले पानी भर दिया। दीप जल उठे और मसजिद रात भर प्रकाश से जगमग करती रही। दुकानदारों की आंखें खुल गई।
एक बार शिरडी में हैजे का घोर प्रकोप हुआ। साई बैठकर चक्की में गेहूं पीसने लगे। यह देखकर कई लोग उपस्थित हो गए। चार औरतों ने चक्की लेकर स्वयं पीसना शुरू किया। पर्याप्त आटा हो गया तो साई ने उसे गांव की सीमाओं पर छिड़कवा दिया। हैजा गायब। लोगों को लग गया कि बाबा ने गेहूं के रूप में हैजे को ही पीस डाला।
शिरडी को 'उदी' (धूनी का भस्म) की महिमा तो न्यारी है। सहस्रों किलोमीटर दूर भी इनके भक्त इस 'उदी' के द्वारा रोगों और संकटों से मुक्त हो जाते है। यह सत्य है कि कई पूर्णरूपेण समर्पित भक्तों के यहां बाबा के चित्रों से उदी झड़ती है।
शिरडी आने वाले लोगों की संख्या दिनोदिन बढ़ती जा रही है। नवरात्र एवं निर्वाणोत्सव पर तो दर्शन में कई-कई दिन लग जाते है।
शिरडी आज देश के प्रमुख तीन-चार तीर्थों में एक है।

भारतीय एकता संगठन इलाहाबाद