Thursday, August 2, 2012

जीवन की धारा

संसार में रोज ही नए-नए संकट पैदा होते रहते हैं। कोई एक क्षेत्र इसके लिए तय नहीं होता। इसके समाधान के लिए हमें लगातार प्रयत्न करने होंगे। जब हम एक समस्या से छुटकारा पा रहे होते हैं, तब दूसरी समस्या दस्तक देने के लिए आ रही होती है। लेकिन कई बार हम निराश हो जाते हैं।
विशाल दृष्टि रखकर सोचें। परमात्मा ने इतना बड़ा संसार बनाया, उसमें कोई न कोई संकट आता ही रहता है। इसीलिए वह परमशक्ति लगातार प्रयत्नशील रहती है। धर्मो में अवतारों की कल्पना उसी क्रियाशील शक्ति का प्रतीक है।
अपनी उस शक्ति को सूर्य के रूप में स्थापित करके हमें यह शिक्षा दी है कि अपने तेज प्रकाश को लगातार परिभ्रमण करते हुए सबमें बांटें।
धरती न सिर्फ देती है, बल्कि क्रियाशील भी रहती है। धरती सूर्य का चक्कर लगाती है, बादल अपने वेग से चलते हैं। वायु कभी विश्राम नहीं करती। नदियां बाधाओं को पार कर अपने मुकाम समुद्र तक पहुंच जाती हैं।
समुद्र अपनी गहराई तक क्रियाशील है। प्रकृति के ये सारे रूप हमें संदेश दे रहे हैं कि लगे रहो, रुको मत। धर्म और अध्यात्म ने कर्म को इसीलिए तप से जोड़ा है।
केवल करने के लिए काम न करें। हमारे यहां साधु-संतों ने भी तप को दो भागों में बांटा है - एक बाहरी तप और दूसरा भीतरी तप। जो कमर्कांड हम करते हैं, धार्मिक रूप से सक्रिय रहते हैं, यह बाहरी तप है, इसमें शरीर जुड़ा हुआ है।
लेकिन यह कर्म नहीं, तप कहलाएगा। इसलिए आध्यात्मिक लोग अपना प्रत्येक कर्म तप में बदल देते हैं। यही तप जब भीतर उतर जाता है तो योग हो जाता है। 

भारतीय  एकता  संगठन